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महाश्वेता देवी की श्रेष्ठ कहानियाँ

माहेश्वर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4433
आईएसबीएन :81-237-0533-6

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आदिवासी समाज और जनजातियों पर आधारित कहानियाँ.....

Mahashweta devi ki shreshth kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘एक लम्बे अरसे से मेरे भीतर जनजातीय समाज के लिए पीड़ा की जो ज्वाला धधक रही है, वह मेरी चिता के साथ ही शांत होगी.....।’’ ये उद्गार बंग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी के हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन और साहित्य भारतीय जनजातीय समाज को समर्पित कर दिया है। इसलिए स्वयं लेखिका द्वारा संकलित इस संग्रह की नौ में से आठ कहानियों के केन्द्र में आदिवासी मनुष्य है, जो समाज की मूलधारा से कटकर जी रहा है। इन कहानियों में जिस आदिवासी समाज अथवा जिन जनजातियों को पहचाना जा सकता है, वे हैं बागदी (बाढ़), डोम (बायेन), पाखमारा (शाम सवेरे की माँ) उरांव (शिकार) गंजू (बीज), माल अथवा ओझा (बेहुला), संथाल (द्रौपदी), दुःसाध (मूल अधिकार और भिखारी दुसाध)।

ये कहानियाँ लोककथाओं और पुराकथाओं के सहारे कही गई हैं। महाश्वेता देवी के ही शब्दों में ‘‘....मैं पुराकथा, पौराणिक चरित्र और घटनाओं को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में फिर से यह बताने के लिए लिखती हूँ कि वास्तव में लोककथाओं में अतीत और वर्तमान एक अविछिन्न धारा के रूप में प्रवाहित होते हैं....।’’
साहित्य अकादमी सहित अनेक साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित महाश्वेता देवी के उपन्यास, कहानियाँ और नाटक लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में अनूदित हुए हैं।

भूमिका


सन् 1984 में प्रकाशित अपने ‘श्रेष्ठ गल्प’ की भूमिका में महाश्वेता देवी ने लिखा है : ‘साहित्य को केवल भाषा, शैली और गल्प और शिल्प की कसौटी पर रखकर देखने के मानदण्ड गलत हैं। साहित्य का मूल्यांकन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए। किसी लेखक के लेखन को उस समय और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में रख कर देखने से उसका वास्तविक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। मैं पुराकथा, पौराणिक चरित्र और घटनाओं को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में फिर से यह बताने के लिए लिखती हूँ कि वास्तव में लोक-कथाओं में अतीत और वर्तमान एक अविच्छिन धारा के रूप में प्रवाहित होते हैं। यह ‘अविच्छिन्न धारा’ भी वायवीय नहीं है, बल्कि जांत-पांत, खेत और जंगल पर अधिकार और सबसे ऊपर सत्ताधारी वर्ग की, सत्ता के विस्तार तथा उसे कायम रखने की, पद्धति को केन्द्र में रखकर निम्न वर्ग के मनुष्य का शोषण का क्रमिक इतिहास है।’’

इस नये संकलन के लिए स्वयं लेखिका द्वारा जो नौ कहानियां चुनी गयी हैं, उनमें से आठ के केन्द्र में आदिवासी मनुष्य हैं, जो समाज की मूलधारा से विच्छिन्न होकर संस्कार तथा इतिहास के राज्य में निर्वासित हैं। इन कहानियों के ये पात्र कभी तथा-नीची जात के हैं, तो कभी अंत्यज उपजाति के। इस देश में आर्थिक शोषण ने बहुत दिनों से धार्मिक संस्कारों का मायाजाल का विस्तार किया है और उसकी आड़ से वह अपने शिकार पर हमला करता है। इसी प्रकार लोक-कथा और पुराकथा का आश्रय लेकर शोषक वर्ग शोषितों को एक मायावी अंधकार से आच्छन्न करने में समर्थ हुआ है। जनजातियों में लोक-विश्वास का यह भयंकर प्रतिगामी आकर्षण महाश्वेता देवी को विशेष रूप से चिंतित करता है। अपनी कहानियों में जिस समाज को चित्रित करती हैं और जिसके प्रति क्रमशः उनका आग्रह इधर और अधिक बढ़ा है, उनके जीवन के यथार्थ और इतिहास की खोज में वह जितना ही उनके पास गयी हैं, उतना ही उनके जीवन, जीविका और अधिकारों के आन्दोलनों के साथ जुड़ गयी हैं। उस समाज की संस्कृति के साथ प्रत्यक्ष परिचय के सूत्र से ही उन्होंने इस विश्वास-जगत को देखा और जाना है।

 इस विश्वास में जो गौरव-बोध है, वही गुलामी की जंजीरों और प्रवंचना को आशीर्वाद मान कर स्वीकार करने की युक्ति बन जाता है। मिथ अथवा पुराकथा और लोक कथा को रमणीय बनाकर दिखाने की जो प्रवणता इस देश में एक अद्भुत अनैतिहासिकता का आश्रय लेकर जीवित है, अथवा कभी मार्क्सवादी तरीके से औपनिवेशिक उत्तराधिकार के विरोधी अन्य उत्तराधिकार के रूप में जिसका सम्मान किया जाता है और धुंधले ऐतिह्य-विलास की आड़ में निर्मित जिस सुरंग में एक राजनीतिक हिन्दुत्व छुपा बैठा है, उसी की जड़ पर आघात किया है महाश्वेता देवी ने।

इन कहानियों में जिस आदिवासी समाज अथवा जिन जनजातियों को पहचाना जा सकता है, उनमें बागदी (बाढ़), डोम, पाखमारा (शाम-सवेरे की मां), ओरांव (शिकार), गंजू (बीज), दुसाल (मूल अधिकार और भिखारी दुसाध), माल अथवा ओझा (बोहुला), संथाल (द्रौपदी), आदि हैं। इनमें ‘‘गंजू लोगों का काम है मरे हुए पशुओं की खाल निकालना’’, भिखारी दुसाध की जीविका है ‘‘घूम-घूम कर बकरी चराना’’, बांयेन बन जाने के पहले चण्डी का ‘‘वंशगत उत्तराधिकार’’ था ‘‘श्मशान में मुर्दे गाड़ने का काम’’। यह जो जीविका अथवा पेशे का वंशगत उत्तराधिकार है, वह भिन्न-भिन्न समाजों को पुश्त-दर-पुश्त आदिवासी बनाये रखता है और उसी को केन्द्र बना कर अथवा संस्कारों के शासन को निरन्तर बनाये रखने के उद्देश्य से, एक पुराकथा प्रतिष्ठित रहती है। पाखमारा लोग ‘‘जरा व्याध के वंशधर’’ हैं, डोम लोग उस आदि गंगापुत्र की संतान हैं, जिसे राजा हरिश्चन्द्र ने पृथ्वी के सभी श्मशानों का स्वामित्व प्रदान किया था और जो अबोध आनन्द में ‘‘दोनों हाथ ऊपर उठाकर तेजी से नाच उठा था’’ और जिसने परम उल्लसित होकर कहा था, ‘‘हां ! हमने श्मशान पाया है जी, सभी श्मशान हमारे हैं।

 इस पृथ्वी के सभी श्मशान हमारे हैं।’’ पुराकथा को केवल स्मृति अथवा उपाख्यान की श्रुति के रूप में आबद्ध न रख कर महाश्वेता देवी जब उसे नाटकीय स्वरूप की विराटता प्रदान करती हैं, तब यह पौराणिक विस्तार ही धर्म के छल और उसके माया-जाल के नागपाश को मूर्त करता है और आदिवासियों को उच्च वर्गों की शठता के अबोध शिकार के रूप में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। इसी प्रकार इतिहास के सायस विन्यास में दरार डाल कर, कहानी कहने की विशेष शैली अथवा कारीगरी को, अथवा एक विशेष भाषा-रूप को इस्तेमाल करके वे एक दूसरे इतिहास का उन्मोचन करती हैं।

मगर दूसरी तरफ आर्थिक-सामाजिक स्तर पर बहुत कुछ बदलता रहता है। मलिन्दर गंगापुत्र श्मशान के डोम के स्तर से ऊपर उठ कर ‘जिले के लाशघर में काम पा जाता है।’’ सरकार बाबू के साथ मिलकर वह लावारिश लाशों के कंकाल बेचने के व्यापार में लगा हुआ है। चोरी-चोरी की गयी उसी ‘ऊपरी कमाई को सूद पर चला कर’’ वह कुछ सुअर भी खरीद लेता है। फिर भी उसके संस्कार नहीं बदलते, उसके विश्वास कायम रहते हैं। अपनी औरत को बांयेन घोषित करके समाज से बहिष्कृत करने में उसे जरा भी संकोच नहीं होता। महाश्वेतादेवी की ‘‘बांयेन’’ कहानी का सबसे मार्मिक क्षण यही है। जो स्वयं भद्र समाज से निर्वासित हैं, वे खुद ही अपने में से एक व्यक्ति को समाज से निर्वासित कर देते हैं। मनुष्य समाज को हाशिए पर जो लोग रख दिये गये हैं, वे ही लोग जब किसी को अपने समाज से  निर्वासित करते हैं, तब वह निर्वासिता स्त्री जैसे मनुष्येत्तर श्रेणी में पहुंच जाती हैं और उसे अपनी नियति मान कर स्वयं भी स्वीकार लेती है।

इसीलिए चण्डी मनुष्य नहीं रह जाती, बांयेन बन जाती है। मलिन्दर अपने लड़के भगीरथ से कहता है, ‘‘पहले वह आदमी थी, तेरी मां थी।’’ संस्कार के साथ प्रच्छन चिरंतर मानवता का द्वन्द्व कभी समाप्त नहीं होता। इसलिए बांयेन बन गयी चण्डी को भी ‘अचानक पत्नी की तरह विवेकहीन मलिन्दर के ऊपर गुस्सा’’ आता है। यह कहानी तभी एक और मोड़ लेती हैं, जब आधुनिक मानसिकता-प्राप्त भगीरथ अपनी मां के पास जाने की चेष्टा करता है, इतनी ही नहीं वह चण्डी को मनुष्य के अलावा और कुछ मानने को तैयार नहीं होता। चण्डी के साथ बात करके उसका पुत्र भगीरथ जैसे समाज से विच्छिन्न एक महिला को फिर समाज के दायित्वपूर्ण दायरे में खींच लाता है। शुरू-शुरू में मरे हुए बच्चों की लाशों की देखभाल से मुक्त होकर बड़ी आसानी से और अनिवार्य रूप से चण्डी रेलयात्रियों के विशालतर समाज की रक्षा के दायित्वबोध तक उत्तीर्ण हो जाती है।

एक पवित्र भय के कारण समाज ने एक समय चण्डी बांयेन घोषित कर दिया था। अपनी नयी प्रतिरोधात्मक भूमिका में चण्डी डाकुओं के मन में वही पवित्र भय जगा देती है। क्रिया-प्रतिक्रिया के यही सूत्र महाश्वेता देवी की कहानियों के प्राण हैं। ‘बांयेन ने अपने समाज के लोगों को इतना भयभीत होते कभी नहीं देखा।’’ समाज से निर्वासित जीवन जीने की शिलीभूत यन्त्रणा नवोन्मेशित मानवताबोध की आग में तप कर समाज के विरुद्ध प्रतिवाद के विवेक का रूप धारण कर लेती है। आधुनिक यूरोपीय कथा-साहित्य में सुपरिचित ‘आउटसाइडर’’ अर्थात् समाज से निर्वासित मनुष्य की भूमिका यहां एक भिन्न रूप ग्रहण करती है। समाज के अधिकार ने ही चण्डी बांयेन को यह शक्ति दी है, जिससे वह अन्याय के स्वरूप का प्रतिरोध कर पाती है। भगीरथ जब राष्ट्र के सामने, प्रशासन के सामने अपना वंश-परिचय देता है, समाज से निष्कासित चण्डी बांयेन के पुत्र के रूप में अपना परिचय देता है, तो वह नाटकीय क्षण कहानी का चरम मुहूर्त बन जाता है और पुरा कथा जैसे पुनर्जन्म ले लेती है।

संस्कारों का पथरीला भार फेंक कर आधुनिक मानसिकता की प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष करने की एक और तस्वीर है ‘बेहुला’’ कहानी। इस कहानी में बाहर से आये सुधारक की भूमिका बसंत कुमार ग्रहण करता है। यहां पर प्राचीन संस्कारों का धारक श्रीपादमल है--‘‘इस अंचल के गांव का ओझा, ‘‘विच डॉक्टर’’। मगर जहां मुनाफे का बिसाब मृत्यु का लालन-पालन करता है (एक ओर हेदो नश्कर बिना ठीक दाम पाए ईंटों का भट्ठा नहीं बेचता और उन्हीं ईंटों में सांपों की वंशवृद्धि होती है, दूसरी ओर सर्पदंश की औषधि कोई कम्पनी बनाना नहीं चाहती, क्योंकि सांप जिन चार लाख लोगों को काटते हैं, उनमें केवल बीस हजार मरते हैं।’’) वहीं पर बसंत और श्रीपद के बीच गहरी मित्रता है और सहयोग की भावना पनप उठती हैं और शिक्षा का पारस्परिक विनिमय ‘‘विज्ञान और विषहरि, दोनों की साधना’’ के रूप में परिणत हो जाता है। इस कहानी में महाश्वेता देवी कहानी को एक और आयाम देने के लिए तरह-तरह की भाषा का प्रयोग करती हैं।

एक ओर विज्ञान चर्चा की भाषा के रूप में अंग्रेजी के शब्दों का प्रचुर प्रयोग दूरस्थ सत्ता-सूत्र के अदृश्य शासन का द्योतक है, तो दूसरी ओर वह गांव और शहर की संस्कृति के बीच व्यवधान का भी प्रमाण प्रस्तुत करता है। बसंत के ग्राम-दर्शन और उसके दृष्टिकोण के बीच एक लम्बे समय तक जो दूरी विद्यमान थी, उसी का परिचय देता है बंगला के वाक्यों में विजातीय अर्थात अंग्रेजी शब्दों का बाहुल्य—‘‘यहां पर अपुष्ट क्षयप्राप्त प्रतिरोधहीन मानव शरीर और ‘कालाज़ एबंडनिंग’’, ‘‘ओबलाइज’’, ‘‘रिजीम’’, ‘‘एकेडेमिक आकर्षण’’। इस तरह के शब्द बसंत की चर्चित बौद्धिकता के संस्कार से उठ कर प्राचीन निम्नवर्गीय अभिज्ञता के साथ संपर्क स्थापित करने के उसके प्रयासों को जैसे एक निर्दिष्ट मात्रा में अवरुद्ध करना चाहते हैं।

यह व्यवधान दो व्यक्तियों के बीच घनिष्ट आदान-प्रदान और उसमें से उभरते हुए मानवीय संपर्क तो तोड़ देता है। जैसे ‘बांयेन’’ कहानी में, वैसे ही ‘बेहुला’’ कहानी में भी यह प्रक्रिया देहरायी जाती है। दोनों ही कहानियों में संस्कारों के बीच उभरते हुए अन्यतम समाजबोध का यह दीप्त उत्ताप है, उसे एक संस्कारमुक्त अन्यतम पवित्रता अथवा मर्यादा के स्तर पर प्रतिष्ठत करने के लिए जैसे महाश्वेता देवी इन्हें जीवनदायिनी मृत्यु में पर्यवसित करती हैं। ‘‘बेहुला’’ कहानी एक भयमुक्त, संस्कार-विरोधी वातावरण में समाप्त होती है : ‘‘गांव के लोगों का शोक, काजल के प्रति उनका भय हेदो नश्कर के प्रति उनका गुस्सा सब कुछ उस प्रज्ज्वलित अग्नि की तरह उनके दिलों में प्रज्वलित क्रोध में बदलते गये। शायद आग और भी जोर से धू-धू कर जल उठी।’’ अपनी मृत्यु के समय श्रीपाद जिस मुक्त, मर्मभेदी दृष्टि को लेकर, देखते-देखते, जानते-जानते और समझते-समझते मृत्यु को वरण करता है, उसी मृत्यु में इस मुक्ति का अहसास निहित था।

‘‘शाम-सवेरे की मां’’ कहानी ठीक इसी तरह एक मृत्यु के सहारे खड़ी होती है। इस मृत्यु के पास आकर, इस मृत्यु के बीच होकर ही जटेश्वरी ठकुरीनी अपने अभौतिक अस्तित्व में मुक्त होकर स्वाभाविक मानवीय अस्तित्व में वापस आती है। जिस पुत्र साधन को जटेश्वरी ने एक बार मना किया था, ‘‘मां कह कर मत पुकारो, मेरे बाप।’’ और जिसके लिए वह, ‘‘सांझ को और सवेरे मां है और दिन में ठकुरानी है’’, उसी साधन को उसकी, ‘‘सांझ-सवेरे की मां’’ मृत्यु के आगमन के पूर्व दिन में ही मां कह कर पुकारने की अनुमति देती है। देवीत्व से जटी की मुक्ति का क्रमिक इतिहास वस्तुतः मां कह कर पुकारने के इस अनुमति दान से ही शुरू होता है। इसके बाद अनादि डॉक्टर देखता है, ‘जटी ठकुरानी की आंखों में एक आश्चर्यजनक अतीन्द्रिय भाव था....आसन्न मृत्यु के अलावा और कोई चीज आदमी की आंखों को इतना सुंदर नहीं बना सकती।’’ मानवी रूप में उसके प्रत्यावर्तन में ही वह इंगित निहित है, जिसमें जटी की तुलना ‘अनादि डॉक्टर की मेज पर बीच-बीच में असहाय वेदना से तड़पती जो युवतियां लेटी रहती हैं के साथ गयी है। ‘‘बांयेन’’ की तरह, श्रीपद् माल की तरह, जटी ठकुरानी भी अपनी मृत्यु में एक महान चरित्र में परिणति होती है। ‘‘जैसे एक अंत्यज, गरीब, अभागिन नहीं मरी है, बल्कि कोई महादानी और मानी व्यक्ति मरा है, इसीलिए इतनी भीड़ है।’’

‘‘बांयेन’’ और ‘शाम-सवेरे की मां’’ में एक समानता है। डोमों के अभिशप्त शूद्र जीवन के पीछे जैसे हरिश्चन्द्र का उपहार है, उसी तरह पाखमारा लोग जरा व्याध के वंशधर के रूप में इसलिए ‘‘अभिशप्त’’ हैं कि उन्होंने ‘‘ईश्वर की हत्या की थी’’। वन्य आत्मनिवेदन के रोमांस के रूप में मलिन्दर-चण्डी और जटी उत्सव के प्रेम-प्रसंगों को भी एक–दूसरे के समानांतर रख कर देखा जा सकता है। मलिन्दर की तरह ही जटी और उत्सव भी अपनी वंशगत जीविका को छोड़कर दूसरे काम करने लगे थे। ‘‘अब तुम अपनी जात से ऊपर उठ गये हो,  तुमने अपना वर्ग बदल लिया है,’’ किंतु उनके संस्कारों में धंसा हुआ भय नहीं जाता। जात में ऊपर उठने की अदम्य आकांक्षा, पुरानी जाति के परिचय को पोंछ फेंकने का भयंकर उत्साह और उसके साथ ही डर के द्वंद्व में काफी समय कट जाता है, जितने दिनों उत्सव जिंदा रहता है।

 बाद में कोशिश करके भी जटी पाखमारा लोगों के समाज में वापस नहीं जा पाती, उन्हें खोज भी नहीं पाती। ‘‘अपने चारों ओर अलौकिकता की दीवार’’ खड़ी करके जटी ने खुद को बचाया। ‘‘शाम होने पर ठकुरानी साधन की मां बन जाती। ठकुरानी होकर जो चावल वह पाती थी उसे साधन की मां होने के बाद वह पका कर अपने बेटे को खिलाती थी।’’ जिस पवित्रता अथवा देवीत्व को जटी ने खुद बचे रहने और अपने बेटे को जिंदा रखने के उपाय रूप में ग्रहण किया था, उसमें निहित अर्थहीन आचरण के प्रति घृणा नाचकीय स्वरूप ग्रहण करती है, जब साधन पुरोहित से ‘‘छराध का चावल’’ छीन लेता है, जिसे ‘‘खाया नहीं जाता।’’ फिर महाश्वेता देवी अपनी स्वाभाविक भाषा-शैली में इस अकस्मात घटित अनाचार को मानवीय मर्यादा प्रदान करती हैं, अशौच से मुक्ति को धर्म का ऐश्वर्य प्रदान करती हैं और फिर गृहस्थ जीवन की अंतरंग भाषा के द्वारा उसे निर्मम वास्तविकता के स्तर पर प्रतिष्ठित करती हैं : ‘‘गले में चावल की पोटली लटकाये साधन घर आया। साधन घर जायेगा, अंगीठी में आग सुलगायेगा और भात पकायेगा। भात की गंध बड़ी अच्छी गंध होती है। जितने दिन साधन भात पकायेगा, गर्म भात खाता रहेगा, उतने दिन सांझ-सवेरे की मां उसके पास बंधी रहेगी। मां की याद करके पुरोहित के प्रति अपने दुर्व्यवहार का साधन को पश्चाताप हुआ और उसकी आँखों में आंसू आ गये। उसने मन ही मन मां से कहा, ‘‘मां ! जैसे-तैसे तुम स्वर्ग चली जाओ। साधन अब भात पका कर खाएगा। बुरा मत मानना।’’

साधन कांदोरी की अपरिपक्व बुद्ध और सरलता में एक नग्न यथार्थदृष्टि है जो भूख की नग्न वास्तविकता को सब से ऊपर स्थान देती हैं। यही यथार्थदृष्टि 1436 शकाब्द में चैतन्य के समय में कल्पित ‘‘बाढ़’’ कहानी के बालक चीनिवास में व्यक्त होती है। इन दोनों ही व्यक्तियों की दृष्टि में धर्म और क्षुधा की निवृत्ति समानार्थक होती है। एक विचित्र ‘‘आइरनी’’, के प्रभाव से जैसे महाश्वेता देवी यही बात कहना चाहती हैं कि भूखे को भोजन दे कर जिंदा रखने से बड़ा कोई आदर्श, कोई धर्म नहीं हो सकता।



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